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पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/३१

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परिच्छेद)
२३
रङ्गमहल में हलाहल।

चौथा परिच्छेद.

तीन दिल, दिलदार दो।

हर वशर को ख़ाक़ का पुतला न जानो ग़ाफ़िलो!
एकही सूरत मिली है, ख़ाक़ औ अकसीर को॥"

(ग़ाफ़िल)

संध्या होने में अभी दो घंटे की देर है, तो भी अभी से शाही बाग़ से सारे काम करनेवाले अपना अपना काम पूरा करके बाग़ से बाहर हो गए हैं। इसका कारण 'यह है कि रोज़ शाम के वक्त रज़ीया बेगम बाग़ को हवा खाने तशरीफ़ लाती है । बाग़ शाही महल से मिला हुआ है और महल के चोर दर्बाज़े से बेगम या उसकी सहेलियां, जब चाहती बाग़ में आकर अठखेलियां करतीं और अपना जी बहलाती थीं । जिस समय महल को औरतें बाग़ में जाया चाहतीं, तुरंत बाग के माली बाहर कर दिए जाते और उसके अंदर सिवाय खोजें और मालिनों के कोई मर्द मानस न रहने पाता । हां! उस समय बाग़ः के माली वहां अवश्य रहते और अपना काम करते, जब शाहीमहल की औरतें वहां पर नहीं रहती थीं । बाग़ बहुत लंबा, चौड़ा और सारे संसार के वृक्ष-लताओं से इस उत्तमता से संवारा गया था कि देखते ही बन आता था। उसकी सुंदर क्यारियां, पार्चे, पौधे और दूब के तख्ते, बावली, तालाब, लतामंडप, संगमर्मर की छोटी तथा बड़ी बड़ी बारहदरी और इमारतें, चिड़ियाखाना और पशुशाला आदि एक एक चीज़ ऐसी अनोखेपन और सुघड़ाई से बनाई गई थी कि जिसपर नज़र पड़ती, घंटों उसीकी हो रहती थी। सफ़ाई की यह खूबी थी कि क्या मजाल, जो कहीं पर एक सरसों बराबर कंकड़ी, या एक पत्ती मी झरी हुई दिखलाई पड़े।

ऐसे समय में बेगम की वे दोनों सहेलियां, जिनका नाम सौसन और गुलशन था, हाथ में हाथ दिए हुईं, बाग की रविश पर चहल कदमी कर रही थीं। टहलते टहलते वे दोनों तालाब के किनारे