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पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/३०

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२२
(तीसरा
रज़ीयाबेगम।

अयूब,-"मगर इस बात का जवाब देना तो आप भूलही गए कि फिर जब खुदा की मर्ज़ीही से सब कुछ होता है तो आप हर वक्त ग़मग़ीन क्यों रहा करते हैं । क्या यह वही मसल हुई कि,-'खुदरां फ़ज़ीहत, दीग़रारां नसीहत !' क्यों! आप मुझे तो बराबर यों समझाया करते हैं कि जो कुछ बीत गया, उसके लिये नाहक अफ़सोस करके अपने तईं आप जलाना अच्छा नहीं; मगर फिर आप ऐसा क्यों करते हैं?"

उस्ताद,-"अजीज, अयूब ! तेरा कहना बिल्कुल सही है, मगर सुन,-बात असल यह है कि जब दिल में किसी किस्म का ख़याल बँध जाता है, तब वह धीरे धीरे छुटते छुटतेही छूटता है । बेशक मैं अपने तई बहुत जप्त करता हूं, मगर फिर भी बाज़ वक्त तबीयत इस कदर ख़राब हो जाती है कि क्या कहूं ! ताहम मैं अपने तई बहुत समझाया करता हूं और तेरी भी इसी लिये नसीहत करता हूँ कि जिसमें तेरा दिल बहला रहे और तू कोई ऐसा काम न कर बैठे जो सरासर नामुनासिब और अक्ल के बईद हो।”

अयूब,-"जी हां, उस्ताद ! आपकी नसीहत का ही यह असर है कि अब तक मैं पागल होने से बचा हुआ हूं। अलाहाज़ उल्क़यात! यह तो फ़र्माइए कि कभी ऐसा दिन भी नसीब होगा कि किसी सूरत से ( इधर उधर देखकर ) इस गुलामी से छुटकारा मिलेगा?"

उस्ताद,-"बस, खुदा को याद कर । क्योंकि सिवाय उसकी मर्जी के दुनियां का कोई कामही नहीं होता।"

अयूब,-"बेशक, मैं हर वक्त यादे खुदा में मशगूल रहा करता हूं, और एक यही बात ऐसी है कि जिसकी बजह से तबीयत बेचैन नहीं होने पाती । (कुछ सोचकर ) क्यों, उस्ताद ! क्या कोई ऐसी तबीर भी हो सकती है कि शाही कुतुबख़ाने से पढ़ने के वास्ते किताबें दस्तयाब हुआ करें?"

उस्ताद,-"मुर्माकन है कि कभी न कभी इसकी कोई न कोई सूरत निकल ही आवेगी, पस, तावक्ते कि वैसा न हो, कुरान शरीफ़ कोही रात दिन देखा कर; उससे बढ़कर दुनियां में कोई दुसरी किताब नहीं है।"