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पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/४३

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परिच्छेद)
३५
रङ्गमहल में हलाहल।

छठां परिच्छेद.

दंगा, फ़साद।'’'

"न पूछो, हम सफ़ीरो ! क्या हुई वह अपनी आज़ादी।
गिरफ्तार बला जब से हैं बरगश्ता ज़माना है।
न उम्मीदे रिहाई है, न है परवाज़ की ताक़त।
हमारे मुश्तपरका अब क़फ़स में आशियाना है।"

(सफ़ीर)

तीसरे पहर के समय पुरानी दिल्ली (१) के बाज़ारों में तीन मुसलमान फ़कीर भीख मांगते दिखलाई दे रहे हैं। उनमें एक नाटे कद का बुड्ढा फ़कीर है और दो मझोले क़द के नौजवान फ़क़ीर हैं । तीनों की सूरत शकल में यद्यपि कुछ फ़रक है, पर बुड्ढे के चेहरे से एक तरह के रोब की झलक निकली पड़ती है, और उसके दोनों शागिर्दो के मुखड़े से सीधेपन के साथ भोलापन टपका पड़ता है। तीनों ठिहुनी तक नीले रंग का कुर्ता और गले में ढेर की ढेर कांच को मनियां पहिरे हुए हैं और तीनों ही के हाथ में तसवी है। बुड्ढे के सफ़ेद बाल कंधेपर पड़ेहुए हैं और दोनो नौजवान फ़क़ीर के काले काले घुंघराले बाल कमर तलक लटक रहे हैं । वे तीनो न तो किसीसे कुछ बात चीत करते हैं और न किसीके सामने अड़ कर कुछ मांगते ही हैं, पर हर गली कूचे और बाज़ार में यों आवाज़ लगाते फिरते हैं,--

बुड्ढा.-"मौला, तुझको बेटा देवे, दे खुदा की राह में।" एक नौजवान,-"बाबा, तेरा बच्चा जीए, दे खुदा को राह में।" दूसरा नौजवान,-'अल्ला, तेरा बेटा जीए, दे खुदा की राह में।"

यद्यपि तीनों की आवाज़ सुरीली थी, पर उन दोनों नौजवानों की आवाज़ की अपेक्षा बुड्ढे की आवाज़ में रूखेपन के साथ कुछ


(१) कुतुब की लाट के पास, बसी थी, जहाँ पर मना के एक नाले के किनारे गुलाम बादशाह कुतबुद्दीन ऐबक का बनवाय हुआ किला था।