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पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/४४

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(छठां
रज़ीयाबेगम।

कड़ापन भी मिला हुआ था। योंही वे तीनों आवाज़ लड़ाते और धूमते घूमते, बाज़ार और गली कूचे में होते हुए, कुछ दूर एक मैदान में जा पहुंचे, जहां पर एक देवमन्दिर था और उसके बंद फाटक पर सैकड़ों मुसल्मान हथियार लिये हुए मन्दिर के फाटक को तोड़ते और 'अली, अली' का शोरगुल मचा रहे थे। मंदिर की छत पर बहुत से हिन्दू खड़े थे और मुसलमानों की आज मिन्नत कर रहे और गिड़गिड़ा कर बार बार यों कह रहे थे कि,-"भाइयों ! आपलोगों ने हम निरपराधियों के मारने और मंदिर में घुस आने पर क्यों कमर बांधी है ? हमलोगों का क्या अपराध है, हमलोगों ने या इस मन्दिर ने आपलोगों का क्या बिगाड़ा है?"

पर इसके जवाब में मुसलमान लोग केवल बेतुकी गालियां देते और मंदिर के मज़बूत फाटक परधड़ाधड़ कुल्हाड़ी मारते थे। तीनो फ़क़ीर भी वहीं पहुंच गए और दोनो नौजवान फ़क़ीरों को एक किनारे ठहरा कर बुड्ढा फ़क़ीर भीड़ चीरकर मंदिर के दर्वाजे तक जा पहुंचा और इस ढव से किवाडे में पीठ लगा कर खड़ा हो गया कि अब कुल्हाड़ी का मारना रुक गया और कई मुसलमानों ने झल्ला कर कहा,-

"क्यों बे ! फ़क़ीर की दुम ! तुझे यहां किसने बुलाया है ? चल, हट; दूर हो यहांसे, ! अपना रास्ता पकड़!"

किन्तु बुड्ढे ने झिड़की की कुछ भी पर्वा न की और मुस्कुरा कर कहा,-"या इलाही ! अब ये दिन आ गए कि अपनी कौमही । अपनी दुश्मन बन कर गालियां देने लगी !- अफ़सोस !!! क्या दीन इस्लाम की क़ौमी मिल्लत इस दर्जे को पंहुच गई ? या रब, तूही मालिक है।"

ऊपर कहे हुए वाक्य उस बुड्ढे फ़कीर ने ऐसे ढंग से कहे कि जिन मुसलमानों ने उसे गोलियां दी थीं, वे कुछ नर्म हुए और कई मुसलमान उसके सामने खड़े हो, सवाल पर सवाल करने लगे,-

"आप कहां रहते हैं ? "-"यहां पर क्यों आए हैं ?"-"हम- लोगों के काम में क्यों खलल पहंचाते हैं ?"-" मुसलमान होकर एक काफ़िर के बुतखाने के ढाह देने से आप क्यों रोकते हैं? "-

"क़ाफ़िरों का मारना या उन्हें दीन इस्लाम में लाना शरा के ममूजिम जायज़ है, फिर आप क्यों इस काम में दस्तअंदाज़ी करते