पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
परिच्छेद)
५१
रङ्गमहल में हलाहल।

आठवां परिच्छेद

दिल का देना और लेना

"तेरा वस्ल हो, ख़ाहिशे दिल यही है।
मुहब्बत का, उल्फ़त का हासिल यही है,"

(सफ़दर)

दोपहर का समय है । शाही बाग़ में काम करनेवाले अपने अपने देरे पर खाने पीने और सुस्ताने गए हुए हैं; इसलिये इस समय बाग़ में सन्नाटा है। ऐसे समय में वहादुर याकूब बाग़ के उस निराले हिस्से में, जिधर नकली पहाड़ी और झील बनी हुई है, एक लतामण्डप के अन्दर मन्दली चौकी पर लेटा हुआ कोई पुस्तक देख रहा है । उसका चेहरा उतरा हुआ है, आंखें भर्राई हुई हैं और उदासी की छाया से चेहरा झांवला सा होरहा है। यद्यपि वह पुस्तक पढ़ रहा है, पर रह रह कर ठंढी सांसें भी लेता है और कभी कभी अपने कलेजे पर हाथ रख, उदास आँखों से इधर उधर देखने भी लगता है । वह इसी अवस्था में बहुत देर से पड़ा था कि पत्तों के खखड़ाने से किसी के आने की आहट पाकर चौकन्ना हो, इधर उधर देखने लग गया। थोड़ीही देर में उसने अपने सामने बेगम की प्यारी सहेली सौसन को देखा, जिसे देख, वह घबरा कर उठ खड़ा हुआ और उसकी ओर अदब से झुक कर बोला,--

"मुआफ़ कीजिएगा; इस वक्त आप बाग़ में तशरीफ़ लाएंगी, इसकी मुझे मुतलक ख़बर न थी, वर न मैं हर्गिज बाग़ के अन्दर न रहता।"

आज शुक्रवार है, दर्बार बन्द है, बेगम खाना खाने बाद अपनी ख़ाबग़ाह में आराम कर रही है और दोपहर का-निराले का-वक्त है; इसीसे मौक़ा देखकर सौसन बाग़ में आई थी। उसने किसी ढब . से यह बात जान लीथी कि,--'दोपहर के वक़्त याकूब बाग़ में. कहीं न कहीं पर आराम किया करता है;सोबह उसीसे मिलने