पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/६७

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परिच्छेद)
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रङ्गमहल में हलाहल।

"चश्मे फ़ैयाज़ से हमको जो इशारा हो जाय।

नाम हो आपका, वो काम हमारा हो जाय।"

फिर आवाज़ आई,-" अय साहब!-

फ़कत चार दिन की य, है, जाहो हशमत।

ज़माना कहां, आशना है किसीका॥"

अयूब,-(ठंढी सांस लैंचकर) "अल्लाह ! अल्लाह ! यह नाज़ ? ख़ैर न आइए और यो ही जला जला कर जान लीजिए; पर याद रखिए कि,-

"यही हैं चालें अगर तुम्हारी, तो देखना मर मिटेंगे हमभी। जहां पड़ेगा कदम तुम्हारा, वहीं हमारा मज़ार होगा॥" आवाज़ आई,--

"नक्द दिल तेरा सनम ! जब तक न पाएंगे।"

फिर किस उम्मीद पर, कहो, हम दिल लगाएंगे?

अयूब,-" लीजिए, हाज़िर है, ख़रीद लीजिए।"

आवाज़ आई,-"क्या क़ीमत लीजिएगा ?"

अयूब,-" वह भी बतलाएं ? अच्छा सुनिए,-

फ़कत एक बोसे पे देता हूं दिल को।
न समझो कि सौदा गरां बेचता हूं ॥
तुम्हें जो पसंद आए, हाज़िर है, लेलो।
दिलो, दीनो, नामो, निशां, बेचताहूं।
जरा तो लगो आ, गले हंस के मेरे ।
मुहब्बत में दोनों जहां बेचता हूं।"

इस पर कहकहे के साथ आवाज़ आई,-"मगर जो मैं जबर्दस्ती दिल छीनलं और उसके एवज में आपको फ़क़त अंगूठा दिखला दूं, तो?"

अयूब,-" अल्लाह ! आपका ऐसा इरादा है !!! अफ़सोस ! खैर, तो साहब-

अगर छीन कर तुमको लेना हो, लेलो।

न दिल बेचता हूं, न जां बेचताहूं ॥"

इसके बाद फिर क्या हुआ ! फिर यह हुआ कि अयूब ने अपने सामने एक परोजमाल को खड़े देखा जिसे देखतेही वह उठ खड़ा. हुआ; पर घबराहट, खुशी, डर और कलेजे की धड़कन से उसकी