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पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/७०

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(नवां
रज़ीयाबेगम


फिर गुलशन ने डबडबाई हुई आंखों से अयूब की ओर निहार कर धीरे से कहा,-

"प्यारे, अब मैं यहां से जाती हूं, क्योंकि मुझे चुपचाप महल से गायब हुए देर होगई है। अगर बेगम साहिबा सोकर उठी होगी तो मुझे खोजती होंगी; और इस वक्त अव मेरा यहां पर ज़रा भी ठहरना नामुनासिब है।"

अयूब,-( ठंढ़ी सांस भर कर ) " ऐसाही इरादा है तो खैर प्यारी!--खुदा हाफ़िज़!"

गुलशन,-"खुदा हाफ़िज़ ! प्यारे ! घबराइएगा नहीं, मौका मिलने पर मैं फिर आपसे मिलूंगी।"

अयूब,-" लिल्लाह ! मेरी भी यही आयें है; खुदारा, जहांतक जल्द मुमकिन हो, मुलाकात हो!"

गुलशन,-" मैं इसके लिये कोशिश करूंगी।"

निदान, गुलशन अयूब के गले लग कर चली गई और उसके जाने पर बेचारा अयूब वहीं पर बैठ कर रोने लगा। थोड़ी देर बाद बाग़ में चोबदार चारो ओर घूम घूम कर यों पुकारने लगा कि,-- बाग़ के काम कारनेवालो ! जल्द अपना अपना काम अंजाम कर के बाग़ के बाहर हो जाओ। सुलताना बेगम साहिबा के तशरीफ़ लाने का वक्त अनक़रीब है"

चोबदार की इस आवाज़ को सुन, सब काम करनेवाले अपना अपना काम पूरा करके एक घंटे के अन्दर बाग़ के बाहर होगए और तब फिर उसके अन्दर सिवाय खोजे और लौंडियों के और कोई मर्द मानस न रह गया; किन्तु बेचारा अयूच, जिस लतामंडप में गुलशन से मिला था, उसकी जुदाई में, वहीं पर बदहवास पड़ा हुआ है और अपने सोच बिचारों में उसका जी इतना उलझ रहा है कि उसके कानों में न तो चोबदार की चिल्लाहट पहुंची और न उसे इसी बात का ध्यान रहा कि,-"अब बेगम साहिबा के आने का वक्त होगया, इस लिये यहांसे निकल जाना चाहिए।"

पाठकों ने इतना तो अवश्यही जान लिया होगा कि यह गुलशन कोई दूसरी औरत नहीं, बल्कि सुलताना रज़ीया बेगम की सहेली ही है । रंगभूमि में अयूब को देखतेही गुलशन उस पर