नजर गड़ा कर देखा; फिर उसने गुलशन के चेहरे पर नज़र डाली, जो सिर झुकाए हुई शान्त भाव से बैठी थी, पर उन दोनों-अयूब या गुलशन--के चेहरे से कोई बात ऐसी नहीं पाई गई, जिससे किसी तरह का शक किया जाता; इसलिये बेगम का गुस्सा, जो सातएं आस्मान पर चढ़ा हुआ था, कुछ उतर गया और उसने अयूब से कहा,-
"इस वक्त मैंने तुझे, अयूब ! इसलिये तलब किया है कि क्या तूने कभी किसीके सामने इस बात की ख़ाहिश जाहिर की थी कि,-'अगर किसी सूरत से शाही कुतुबखाने से किताबें मिल सकती तो क्या ही अच्छा होता!'"
अब अयूब की जान में जान आई; क्योंकि पहले वह इस बेवक्त बेगम के बुलाने को जैसा ख़तरेनाक समझता था, वैसा उसने अब न देखा; इसलिये उसने मन ही मन इस बात का निश्चय कर लिया कि,-'अभी तक जोहरा को बेहोशी का हाल किसीको मालूम नहीं हुआ है, और न अभी तक किसीने उसकी ख़बरहो ली है, या कोई उसके पास पहुंचा है।' ये सब बातें उसने छिन भर में सोच ली और बेगम के सवाल का जवाब तुरंत दिया,
“जी हां, जहांपनाह ! मैंने ऐसी ख़ाहिश अपने उस्ताद के आगे एक मर्तबः जाहिर की थी।
रज़ीया, "खैर, जो हो, मैंने यह खबर पाई थी, इसलिये तुझे तलब किया कि,-क्या तू कुतुबखाने का मुन्शी हुआ चाहता है?" यह सुन, ज़मीनचूम कर अयूबशाहानः आदाब बजा लाया और बोला,- "जहांपनाह ! गुलाम पर निहायत मिहरबानी होगी, अगर ऐसा वहदा ताबेदार को बख़शा जायगा।"
रजीया,-"खैर इस वक्त तू रुखसत हो, किसी रोज़ 'मुन्शी कुतुबख़ानः' की खिल्लत और पर्वाना तुझे दिया जायगा।
इतना सुन कर अयूब ने ज़मीन चूम कर सलाम किया और खुशी खुशी वह वहां से चला और बाग़ से बाहर हो, अपने देरे पर पहुंचा । एक बेर उसने अपने जी में यह सोचा कि,-'एक नज़र ज़ोहरा की कैफ़ियत देखता चलूं' पर वैसा करना उसने मुनासिब न समझा; क्योंकि जो लौंडी उले बुला लाई थी वह बार के फाटक तक उसके पीछे पीछे गई थी।