पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१२७

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जा तजिबी प्रान होइ मतिअंध विचारयौ । हाय जाय कैसैं यह मनसा-पाप निवारयौ । दुख सौँ गई हाय ऐसी है मति मतवारी। अंतरजामो नाथ छमहु यह चूक हमारी ॥ ६४ ॥ अब तो हम हैं दास डोम के आज्ञाकारी । रोहितास्व नहि पुत्र न सैब्या नारि हमारी ॥ चलैं स्वामि के काज माहिँ दृढ़ है चित लावै । लेहि कफन का दान बेगि नहि बिलँब लगावै ॥६५॥ यह निरधारि निबारि फाँद हिय प्रौढ़ महा करि । उतरि आइ रानी पाछै ठमके उर कर धरि ॥ सुन्यौ बहुरि ताका बिलाप अति बिकल करैया । "हाय बत्स अब उठा हमैं टेरौ कहि मैया ॥६६॥ हाय-हाय काकै हित अब हम असन बनैहैं। काकाँ मुख की धूरि पाँछि कै अंक लगैहैं । अब काकै अभिमान विपति हूँ मैं सुख मानें । दासी हूँ है रानिनि सौं निज कौँ बढ़ि जानें ॥ ६७ ॥ हाय बत्स तुम बिन अब जग जीवति नहिँ रैहै। याही छन इहिँ ठाम पान काहू विधि दैहैं ॥ याहि बिटप मैं लाइ गरे फाँसी मरि जैहैं । धाइ समैं है" ॥ ६८ ॥ कै पाथर उर धारि धार