पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१४

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- ( ११ ) छाई छवि स्यामल सुहाई रजनी-मुख की, रंच पियराई रही ऊपर मुरेरे के । कहै रतनाकर उमगि तरु छाया चली, बढ़ि अगवानी हेत आवत अँधेरे के । घर घर साजै सेज अंगना सिँगारि अंग, लौटत उमंग भरे बिछुरे सबेरे के। जोगी जती जंगम जहाँ ही तहाँ डेरे देत, फेरे देत फुदकि बिहंगम बसेरे के ॥ (संध्या) (इन अष्टकों में तथा सैकड़ों फुटकर कवित्तों में रत्नाक' जी का कलाविद् रूप अधिक स्पष्ट है। ये वे कवित्त हैं जो उनके जीवन काल, में सैकड़ों बार कवि-सम्मेलनों में श्रोताओं की वाहवाही प्राप्त कर चुके हैं। क्यों न हो। इनकी कारीगरी ऐसी ही है। रत्नाकर जी को छोटे छोटे कवि-सम्मेलन अधिक प्रिय थे। कवि-सम्मेलन नहीं, उन्हें कवि-मंडली कहना अधिक उपयुक्त होगा। इन्हीं में वे अपनी मँजी कलम के निखरे कवित्त सुनाया करते थे। इन कवित्तों का संगीत “उद्धवशतक' की कोटि का नहीं है, उससे अधिक हलका और उत्तेजक है और उतना मनोरम तथा वेदनामय भी नहीं। इन्हीं में उनके वीराष्टक के कवित्त भी हैं जिन्हें पढ़कर एक पत्र-संपादक ने लिखा था कि- "रत्नाकर जी भूषण के युग में रहते हैं।” परंतु यह रत्नाकर जी की प्रकृति का विपर्यय है। उनके वीररस के छंदों में अधिकांश अनुभूतिहीन हैं। यह युग "भूषण का युग' कहा जा सकता है। पर वीरता के उत्थान के अर्थ में; हिंदू-मुस्लिम-वैमनस्य के अर्थ में नहीं, जैसा कि उक्त पत्रिका-संपादक का संकेत जान पड़ता है। तथापि रत्नाकर जी को भूषण-युग का कवि कहना केवल हँसी की बात है। किसी कवि के दो चार पदों को लेकर एक सिद्धांत की स्थापना कर चलना ठीक नहीं। (नए नए सिद्धांतों का निरूपण और आविष्कार करनेवालों में से चाहे कोई उन्हें भूषणकाल का और चाहे कोई उमर खैयाम का प्रतिस्पर्धी बतलाये, परंतु साहित्यिक और सामाजिक इतिहास के जानकार और रत्नाकर जी के परिचित उन्हें इस रूप में नहीं देखते । रत्नाकर जी के उद्धवशतक में उद्धव के जोगतंत्र को गोपियों की भक्ति-भावना से पराजित करने की योजना नवीन नहीं है। उनकी उक्तियाँ भी अनेक अंशों में सूरदास, नंददास आदि की उक्तियों से मिलती-जुलती हैं, यद्यपि उनमें रत्नाकर जी की एक निजता अवश्य है। सगुण और निर्गुण भक्ति की यह रसमयी रागिनी वैष्णव साहित्य को एक सार्वजनिक विशेषता है। कृष्णायन संप्रदाय के प्रायः सभी कवियों ने इस रागिनी में अपना स्वर मिलाया है। ऐसी अवस्था में यदि कोई कहे कि रत्नाकर जी की गोपियों की उक्तियाँ नवीन युग के व्यक्तिवाद का संदेश सुनाती हैं अथवा भावी अनीश्वरवाद का संकेत करती हैं, तो यह प्रसंग के साथ अन्याय और रत्नाकर जी की प्रकृति से अपरिचय प्रकट करना ही होगा। इससे चमत्कार को सृष्टि भले ही हो, सत्य की स्थापना नहीं होगी।