पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१६९

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कहा कहैं ऊधौ सौँ कहैं हूँ तो कहाँ लो कहैं कैसैं कहैं कहैं पुनि कौन सी उठानि तें। तौलौ अधिकाई नै उमगि कंठ आइ भिंचि नीर है बहन लागी बात अँखियानि तें ॥४॥ बिरह-विधा की कथा अकथ अथाह महा कहत बनै न जो प्रवीन सुकबीनि सौं। कहै रतनाकर बुझावन लगे ज्यौँ कान्ह ऊधौ कौं कहन-हेत ब्रज-जुवतीनि सौं ॥ गहबरि आयौ गरौ भभरि अचानक त्यौं प्रेम परयौं चपल चुचाइ पुतरीनि सौं। नैंकु कही बैननि, अनेक कही नैननि सौं, रही-सही सोऊ कहि दीनी हिचकीनि सौं ॥५॥ कह रतनाकर नंद औ जसमिति के प्रेम-पगे पालन की लाड़-भरे लालन की लालच लगावती। सुधाकर-प्रभा सौँ मढ़ी मंजु मृगनैनिनि के गुन-गन गावती । जमुना-कछारनि की रंग-रस-रारनि की विपिन-बिहारनि की हौंस हुमसावती। सुधि ब्रज-बासिनि दिवया सुख-रासिनि की ऊधौ नित हमकौँ बुलावन कौँ आवती ॥६॥