पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१८

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जीवनी बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर का जन्म संवत् १६२३ भाद्रपद शुक्ला पंचमी को काशी में हुआ था। ये दिल्लीवाल अग्रवाल वैश्य थे और इनके पूर्वज पानीपत पंजाब के मूल-निवासी थे। वहाँ इनके पूर्वज मुगल-दरबार में प्रतिष्ठित पदों पर काम करते थे। पानीपत छोड़कर इनके पूर्वपुरुष लखनऊ पहुंचे थे। जहाँ इनके परदादा सेठ तुलाराम अतुल संपत्तिशाली और राजमान्य हुए। लाला तुलाराम जहाँदारशाह के दरबार में रहते थे और लखनऊ के बहुत बड़े रईस समझे जाते थे । एक बार लखनऊ के एक नवाब साहब ने तुलाराम जी से तीन करोड़ रुपया उधार माँगा था। इस आज्ञा का पालन करने और रुपए जुटाने में इनकी संपत्ति का बड़ा अंश चला गया। फिर भी अमीर-स्वभाव न गया और उनके वंशजों तक बना चला आया। बाबू जगन्नाथदास में भी इसकी मात्रा कम न थी। सेठ तुलाराम जहाँदारशाह के साथ एक बार काशी आए थे और आकर रहने लगे थे। बावू जगन्नाथदास के पिता पुरुषोत्तमदास फारसी भाषा के अच्छे विद्वान थे और हिंदी काव्य से भी पूरा अनुराग रखते थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र के ये समकालीन थे और उनसे इनकी घनिष्ठ मित्रता थी। अपने विनोदप्रिय स्वभाव के कारण हरिश्चंद्र इनके यहाँ भिन्न भिन्न वेश बनाकर आते थे। एक बार वे भिक्षुक का छद्मवेश बनाकर सबेरे ही बाबू पुरुषोत्तमदास के घर पहुंचे और .' बाहर से एक पैसे का सवाल किया। पहले तो उन्हें पैसा मिल रहा था। पर जब पहचान लिए गए तब बड़ी हँसी हुई। जगन्नाथदास जी ने भी कुछ दिन भारतेंदु का सत्संग किया था और वे इन्हें स्नेह की दृष्टि से देखते और प्रोत्साहन देते थे। कविता की ओर इनकी रुचि देखकर उन्होंने कहा था कि आगे चलकर यह बालक हिंदी की शोभा बढ़ावेगा। उनकी यह भविष्यवाणी सत्य हुई। हिंदी कविता में जगन्नाथदास ने अपना नाम “रत्नाकर" रखा। जो अनेक छंद- रत्नों की रचना के कारण सार्थक हो गया। रत्नाकर जी के पिता के घर में फारसी और हिंदी के कवियों की भीड़ लगी रहती थी जिसका शुभ प्रभाव इन पर पड़ना स्वाभाविक ही था। इन्होंने भी फारसी और हिंदी काव्य का अभ्यास आरंभ किया। अँगरेजी में बी० ए० पास करने के समय तक इन्होंने फारसी में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली थी और फारसी में ही एम० ए० की परीक्षा देना चाहते थे। परंतु कतिपय कारणों से इन्हें परीक्षा देने का अवसर न मिल सका। इस समय तक ये अपना तखल्लुस "जकी" रखकर फारसी की थोड़ी बहुत शायरी करने लगे थे। इस विषय के इनके उस्ताद मिरजा मुहम्मद हसन फायज थे जिनके प्रति इनकी अगाध श्रद्धा थी जो फारसी कविता लिखाना छोड़ देने के बाद भी वैसी ही बनी रही। इस युग वैसी श्रद्धा कम दिखाई पड़ती है।