पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१९२

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जैहैं प्रान-पट लै सरूप मनमोहन कौं तात ब्रह्म रावरें अनूप काँ मिलैहैं हम । जोपै मिल्यौ तौ तौ धाइ चाय सौ मिलेंगी पर जौ न मिल्यौ तौ पुनि इहाँ हाँ लौटि ऐहैं हम ॥६४॥ कान्ह हूँ सौं आन ही बिधान करिबे कौं ब्रह्म मधुपुरियानि की चपल कँखियाँ चहैं। कहै रतनाकर हसैं के कहीं रोवै अब गगन-अथाह-थाह लेन मखियाँ चह ॥ अगुन-सगुन-फंद-बंद निरारन काँ धारन कौं न्याय की नुकीली नखियाँ चहैं। मोर-पंखियाँ को मौर-वारौ चारु चाहन कौं ऊधौ अँखियाँ चहैं न मोर-पंखियाँ चहें ॥६५॥ ढाँग जात्यौं ढरकि परकि उर सोग जात्यौ जोग जात्यौ सरकि स-कंप कॅखियानि तें। कहै रतनाकर न लेखते प्रपंच ऍठि बैठि धरा लेखते कहूँधौं नखियानि तें॥ रहते अदेख नाहि वेप वह देखत हूँ देखत हमारी जान मोर पंखियानि ते । उधौ ब्रह्म-ज्ञान को बखान करते ना नैंकु देख लेते कान्ह जो हमारी अँखियानि ॥६६॥