पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२

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भूमिका आधुनिक युग के व्रज-भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि स्व. श्री बाबू जगन्नाथदास जी रत्नाकर के काव्य-ग्रंथों और कविताओं का यह संग्रह हिंदी-पाठकों के सामने रखा जाता है। यद्यपि रत्नाकर जी ने गद्य में भी बहुत से लेख आदि लिखे थे और ऐसे लेख भी लिखे थे जिनके कारण हिंदी-संसार में आंदोलन सा मच गया था, तो भी इसमें संदेह नहीं कि रत्नाकर जी कवि ही थे और बहुत ऊँचे दरजे के कवि थे। उनका सारा महत्त्व कवि के नाते ही था और इसी लिए इस संग्रह में उनके सब काव्य और कविताएँ ही रखी गई हैं। आशा है, रत्नाकर जी की कृतियों का यह संग्रह-रत्नाकर जी का यह सर्वस्व-हिंदी-संसार में उचित आदर और सम्मान प्राप्त करेगा। रत्नाकर जी की सबसे प्राचीन कविता-पुस्तक "हिंडोला" है। यह प्रबंध-काव्य है और पहले पहल संवत् १९५१ में प्रकाशित हुआ था। दो तीन वर्ष बाद रत्नाकर जी ने इसका संशोधन किया था और स्थान स्थान पर इसमें कुछ पाठ-भेद भी किया था। आपकी दूसरी रचना "समालोचनादर्श" है जो अनुवाद है, और नागरी-प्रचारिणी पत्रिका के प्रथम वर्ष के प्रथम अंक में प्रकाशित हुआ था। इसके उपरांत आपने "हरिश्चंद्र' नाम का एक छोटा काव्य लिखा था जो सबसे पहले काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा-द्वारा प्रकाशित "भाषासारसंग्रह" नामक पाठ्य- पुस्तक में छपा था। इस बीच में आपने "कल-काशी" नामक एक काव्य को रचना आरंभ की थी जिसमें काशी का वर्णन था। पर दुख है कि उसे आप समाप्त न कर सके और वह अधूरा ही रह गया। यहाँ तक कि उसके अंतिम छंद की चौथी पंक्ति भी नहीं लिखी गई । आप समय समय पर "उद्धव-शतक" को भी रचना करते चलते थे और उसके बहुत से छंद आपने रच भी डाले थे, पर उनकी संख्या सौ से कुछ कम ही थी कि उसको कापी आपके यहाँ से चोरी हो गई। उसमें के बहुत से छंद तो आपने अपनी स्मृति की सहायता से ही फिर से लिख डाले और शेष छंदों की पूर्ति फिर से नये सिरे से की। यह ग्रंथ प्रयाग के रसिक-मंडल-द्वारा प्रकाशित हुआ है। इसके उपरांत श्रीमती महारानी अयोध्या की प्रेरणा से आपने अपने सुप्रसिद्ध काव्य "गंगावतरण" की रचना आरंभ की । यह गंगावतरण पूरा हो जाने पर प्रयाग के इंडियन प्रेस से प्रकाशित हुआ और इसके लिए आपको प्रयाग की हिंदुस्तानी एकेडेमी से ५००) पुरस्कार मिला था। रत्नाकर जी का विचार था कि एक रत्नाष्टक लिखा जाय जिसमें १४ अष्टक हों और ८८ कविताओं के देवाष्टक और वीराष्टक भी लिखे जायें। पर इन अष्टकों का आप बहुत ही थोड़ा काम कर सके थे और इस संबंध की आपकी इच्छा काल के कुटिल प्रहार के कारण पूरी न हो सकी। प्रत्येक अष्टक के जितने छंद आप लिख सके थे, उतने ही छंद उन्हीं अष्टक-नामों के शीर्षक में ३. संग्रह में दिये गये हैं। अंत में आपके फुटकर छंदों का संग्रह है। जिन