पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२०

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लेकर पुरानी चाल के कविगण और शायर भी होते थे, इन्हें घेरे रहते थे। प्रयाग में रसिक-मंडल नामक ब्रजभाषा-कवि-समाज की स्थापना में इनकी ही विशेष प्रेरणा रही। वहाँ ये बहुधा जाया आया करते थे और व्रजभाषा-कवियों को प्रोत्साहित किया करते थे। काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा के भी ये मान्य सदस्य थे और इनकी दी हुई निधि से रत्नाकर-पुरस्कार की भी व्यवस्था सभा- द्वारा की गई। सभा के आर्थिक सहायता देने के अतिरिक्त उन्होंने अपना पुस्तक- संग्रहालय भी सभा को प्रदान किया है। अपनी नौकरी से छुट्टी लेकर वे अंतिम दिनों में सूरसागर के शुद्ध संस्करण के प्रकाशनार्थ अथक परिश्रम और धन-व्यय कर रहे थे। दुःख है कि वह कार्य उनके जीवनकाल में पूरा न हो सका, केवल तीन चौथाई होकर रह गया। उनके आदेशानुसार नागरी-प्रचारिणी सभा उस अधूरे कार्य की पूर्ति की व्यवस्था कर रही है। "बिहारी-रत्नाकर" नामक रत्नाकर जी द्वारा की गई बिहारी की प्रामाणिक टीका इस विषय की श्रेष्ठ और सुसंपादित पुस्तक मानी जाती है। (यद्यपि रत्नाकर जी व्रजभाषा के ही अनन्य भक्त थे किंतु खड़ी बोली में भी इन्होंने दो कवित्त लिखे हैं । ये कवित्त अब तक प्रकाशित नहीं हुए। जन्म भर व्रज की माधुरी में निमग्न रहनेवाले इस कवि ने खड़ी बोली की कविता में जो कुछ लिखा वह अपने अनोखे आकर्षण के कारण उद्धृत करने योग्य है ।) उषा के आशा व्योममंडल अखंड तम-मंडित में शुभागम का आगम जनाता है। उच्च अभिलाषा कंजकलिका अधोमुख को प्रान फूंक फूंक मुकलित दरसाता है । भारत-प्रताप-भानु उच्च-उदयाचल से कुहरा कुबुद्धि का चिरस्थित हटाता है। भावी भव्य सुभग सुखद सुमनावली का गंधी गंधवाहक सुगंध लिए आता है ॥ ( २ ) नीरव दिगंगना उमंग रंग प्रांगण में जिसके प्रसंग का अभंग गीत गाती हैं। अतुल अपार अंधकार विश्व व्यापक में जिसकी सुज्योति की छटाएँ छहराती हैं। जिसके अमंद मुखचंद के विलोके बिना पारावार तरल तरंगें उफनाती हैं। पाने को उसी की बाँकी झाँकी मन मंदिर में मंद मुसकाती गिरा गुप्त चली आती हैं। शब्द-योजना के इस अद्भुत प्राचार्य और करामाती कारीगर, को ता० २१ जून १९३२ को हरिद्वार में गंगालाभ हुआ था।