पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२३३

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करि करि सबहिँ प्रनाम नाम कहि काम जनायो । पै तिनहूँ सौं नैंकु अस्व-संवाद न पायौ ॥ लहि असीस चलि चपल सकल पुनि पाय बढ़ाए । सहत दुसह-दुख-दाह कपिल-आस्रम में आए ॥ १० ॥ सुगति गरुड़ तह मिल्यौ मुमति-भ्राता सुभ-दानी । मानहु मंगल सकुन-राज कीन्ही अगवानी॥ जानि पितामह-सरिस कुंवर सादर सिर नायौ । निज आगम कै सकल विषम संबाद सुनायौ ॥ ११ ॥ बहुरि कह्यौ कर जोरि विनय-रस बोरि बचन मैं । तात तुम्हें सब ज्ञात तिहारी गति त्रिभुवन मैं ॥ पितरनि को वृत्तांत कछुक करुना करि भाषा । पुनि कहि कहाँ तुरंग रंग रबि-कुल को राखौ ॥ १२ ॥ अंसुमान के बैन बैनतेयहि अति भाए। सगर-सुतनि कौं सुमिरि सोचि लोचन भरि आए ॥ करी भांति बहु पच्छि-राज जुबराज-बड़ाई। बरनि बीरता बिनय बचन-रचना-चतुराई ॥१३॥ भाध्यौ बहुरि बताइ छार-रासिनि को लेखा । निज पितरनि की पूत दसा दारुन यह देखा ॥ भए छनक मैं छार सकल निज पाप प्रबल सौं। अप्रमेय-तप-तेज कपिल के कोप-अनल सौं ॥ १४ ॥