पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

निसि-दिन करत विचार चारु सुरसरि ल्यावन को। पितरनि तारि अपार छेम सॉ रितिछावन कौ ॥ पै साधन-उपयुक्त-जुक्ति को चित्त चढ़ति ना। सोइ चिंता की सदा चुभति नट-साल कढ़ति ना ॥ ३० ॥ इक दिन गुरु-गृह जाइ पाय परि अति मृदु वानी। करि अस्तुति बहु भाँति भूरि-सद्धा-सरसानी ॥ कह्यौ जोरि जुग हाथ अनुग्रह नाथ तिहार । सुख संपति सौभाग्य जदपि सव साथ हमारे ।। ३१॥ तउ पितरनि की दुसह-दसा-चिंता नित जागति । परत न चल चित चैन नैन निद्रा नहि लागति ॥ प्रन के भार अपार सदा सिर रहत निचाँहाँ । अवलोकत सब जगत लगत निज ओर हसाँहाँ ॥३२॥ सगर-सुतनि की सुनी दसा दारुन-दुख-सानी । सुरसरि-महिमा मंजु गरुड़ की गृढ़ कहानी ॥ तुम सर्वज्ञ सुजान भानु-कुल-नित-हितकारी। धरहु माथ मुनि-नाथ हाथ गुनि भारत भारी ॥ ३३ ॥ सुरधुनि आनन को उपाय करना करि भाषौ। होइ सुगम के अगम सकुच गहि गोइ न राखौ ॥ अंसुमान की देखि दसा कातर मुनि-नायक। कहे पुलकि भरि नैन वैन इमि धीरज-दायक ॥ ३४ ॥