पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२५४

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गुरु-निदेस सिसु-प्रेम नेम कुल-कानि-रखन को । मख-पुरन का भाव चाव पुनि सुतनि लखन का ॥ सब मिलि है धन सघन भूप-मन मंडप कीन्यौ । तापन-तपन निवारि नीर धीरज को दीन्या ॥२५॥ तव सम्हारि चित-बृत्ति सांति भूपति उर आनी । हरि-इच्छा धरि सीस मानि अंतर-हित-सानी ॥ गुरु-पद पूजि मनाइ ईस विधिवत मख कीन्या । असन-वसन-गो-हेम-दान बिपनि कौँ दोन्या ॥ २६ ॥ अस्वमेध स है निवृत्त नृप पुर पग धारा । सुरसरि-भानन का उपाय बहु भाय विचाग्यौ । लाई घात अनेक वात नहिँ कछु बनि आई। ऐसहि सोच-विचार माहिँ नृप-आयु सिराई ॥ २७ ॥ अंसुयान तव भया भानु-कुल-कीरति-कारी। धर्म-धीर बीर प्रजा-परिजन-दुख-हारी ।। सिंहासन-सौभाग्य मुकुट को मान-मरैया। छात्र-छत्र को छेम चमर-चित चाव-चढैया ॥ २८ ॥ कछु दिन न्याय चुकाइ प्रजा-गन तिन परिपोषे । विष पितर सुर दान मान पूजा सौँ तोषे ॥ रहत रहित-उतसाह सदा पितरनि हित सोचत । गुनत गरुड़-इतिहास गूढ़ लोचन जल मोचत ॥ २९ ॥ बर