पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२९१

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कहूँ तरल कहु मंद कहूँ मध्यम गति धारे । दरति कूल-द्रुम-मूल ढहावति कठिन करारे ॥ द्वै गिरि-स्रनिनि बीच बढ़ति उमड़ति इमि आवति । ज्यौँ बादर की जोन्ह बिसद बीथिनि मैं धावति ॥ २० ॥ गिरि-विहार इमि करति हरति दुख-दुरित-समूहनि । देत निरासिनि आस त्रास जम-गन के जूहनि । कन-प्रयाग विभूषि कन-गंगा सँग लावति । उत्तर-कासी को महत्त्व लोकोत्तर ठावति ॥ २१॥ भरि टिहरी-उत्संग संग भृगु-गंग समेटति । देव-प्रयागहिँ पूरि अलक-नंदहिँ भरि भै टति ॥ हृषीकेस सौ होति सैल-बंधहिँ बिलगावति । हरिद्वार मैं आइ छेम बिति-मंडल छावति ॥ २२ ॥ जेठ मास सित पच्छ स्वच्छ दसमी सुखदाई । तिहिँ दिन गंग उमंग-भरी भूतल पर आई ॥ दस-बिधि-पातक-हरन-हेत फहरान फरहरा। तात ताकौ परयौ नाम अभिराम दसहरा ॥ २३ ॥ सुर-धुनि आवन-धूम धाम-धामनि मैं धाई । चहुँ दिसि त चलि चपल जुरे बहु लोग लुगाई ॥ चारहु बरन पुनीत नीति-नाधे गृह-बासी । जोगी जंगम परमहंस तापस संन्यासी ॥२४॥