पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३०५

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भूप सपदि सम्हारि भए स्यंदन चढ़ि आगे । जय-जय-धुनि नभ पूरि सुमन सुर वरसन लागे । पुरवासिनि की भरी भीर सुभ तीर सुहाई । भय - विस्मय - सुविनोद - मोद - स्रद्धा - सरसाई ॥१०॥ कोउ दूरहि ते दवकि भरि जल-पूर निहारत । कोउ गहि वाहि उमाहि बढ़त-वातक काँ वारत ।। कोउ कहुँ ठठकि अवाइ लखत विन पलक गिगए । गंग-दरस ते मनहु अंग देवनि के पाए ॥ ११ ॥ ग्रीवा चरन उचाइ चाय साँ कोउ चल चाहत । सुभ-सुखमा-सुख-लहन-काज औरनि आवाहत ॥ जानु-पानि-जुग जोरि कोऊ जय-जय-धुनि लावत । कहत सुनत गुन गुनत कोऊ पुलकत पुलकावत ॥ १२ ॥ कोउ हर-हर करि कर पसारि जल-तल हलकारत । दाउ हाथनि मनु अति अमंद आनंद बटोरत ॥ लै चुभकी है मगन मोद-वारिधि कोउ थाहत । जीवन-मुक्ति-महान-लाहु लहि उमगि उमाहत ॥ १३॥ कोउ अंजलि जल पूरि सूर-सनमुख हैं अरपत । कोउ देवनि काँ देत अर्घ पितरनि कोउ तरपत ॥ कोउ तट डटि पट सुघट साजि संध्या सुभ साधत । जप-माला मन लाइ इष्ट-देवहिँ आराधत ॥ १४ ॥