पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३२३

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चार-वर्ग-जय-हेत चमू जय विप्रनिहित परम ब्रह्म-विद्या की देनी । तोष मोष विज्ञान मान इच्छित सब देनः ।। जय क्षत्रिय-कुल-दुरित-दलन-संगर की संगिनि । चमकति चतुरंगिनि ॥ ५॥ जय बालकनि के काज धनिक गाहक मति भोली। खोट-पोट ले देति खरी मुक्तिनि की झोली ।। जय सूदनि हित अति उदार कोमल-चित स्वामिनि । सेवत सद्यः देति सौख्य-संपति सुरवामिनि ॥ ६॥ जय जोगिनि की परम-तत्त्व सुख-निधि भोगिनि की। सागिनि को दुख-दरनिहानि प्रारति रोगिनि की ।। जय जग-जननि अनंत छोह संतति पर छावनि । मृतकहुँ ले निज गाद मोद सुख दै दुलरावनि ॥ ७ ॥ जय किल केहरि-माल कर्म-वन-गहन-सुचारिनि । पातक-कुंजर-पुंज गंजि बर-मुक्ति-पसारिनि ।। दुख-दारिद-दुरभाग-दुरित-गिरि-गुहा-विदारिनि । चिंता-भ्रम-उद्वेग-वेग-मृग-निखिल - निवारिनि ॥८॥ जय कलपद्रुम - कुसुम-मंजु - मकरंद - तरंगिनि । सुर-नर-मुनि-मन-मधुप-पुंज-सरबस-सुख-संगिनि । जय बृदारक-बंद-बंद्य कल कामदुहा की। धवल धार सुख-सार जीवनाधार धरा की ॥९॥