पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३३०

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सभाधिकारिनि सबनि जथोचित आसन दीने । पुरवासिनि बर ब्यूह-बद्ध चहुँ दिसि थित कीने ॥ बंदी मागध सूत बाँधि सेनी सजि सहित । नृप-आगम की बाट सबै प्रमुदित-चित जोहत ॥४०॥ इत नृप न्हाइ सिँचाइ मुनिनि अभिमंत्रित जल सौं। साजि अंग स-उमंग बिभूषण बसन बिमल सौं । पंच-देव कुल-देव नवग्रह पूजि जथाविधि । गुरुदेवहिँ सिर नाइ चले उमड्यौ आनंद-निधि ॥४१॥ सुभ सबच्छ गो लच्छ पौरि पर मोद मढ़ाए । सोपस्कर करि दान सभा-मंदिर मैं पाए । तहँ बसिष्ठ पढ़ि बेद-मंत्र दीन्यौ अनुसासन । करि प्रनाम तब कियौ भूप भूषित सिंहासन ॥४२॥ स्वस्ति-पाठ अरु जय-जय की धुनि-धूम सुहाई । सभा-भौन तैं उमड़ि घुमड़ि चारहुँ दिसि छाई ॥ बहु प्रकार के दान मान महि-देवनि पाए । जाचक भए अजाच प्रजा परिजन मुद-छाए ॥४३॥ प्रीति नीति सौं पागि प्रजा पालन नृप लागे । सुख संपति भरि भूरि भाग बसुधा के जागे ॥ बिरदावलिहिँ बढाइ लगे चारन उच्चारन । स्वस्ति श्री तप-तरनि तरनि-तारनि-अवतारन ॥४४॥