पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३३१

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लहि श्रीजगदंव-निदेस बर गंग-गिरा-गननाथ-बर। यह रतनाकर कीन्यौ अमर गंग-चरित सुभ सौख्यकर ॥४५॥ समाप्ति-संवत् संवत् उनइस सै असी गुरु-पूना भृगु-चार । गंग-अवतरन काव्य यह पूरन भयो उदार ॥