पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३४५

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. निडर निसंक बंक भौहनि कमान तानि, नैननि के बान द्वैक औरहूँ चलाइ दै। तलफत त्यागि जात जुलम न ऐसौ करि, हा हा हँसि हेरि घूमि घायनि अघाइ दै ॥३४॥ न चली कछू लालची लोचन सौं, हठ-मोचन कै चहनोई परयौ । रतनाकर बंक - बिलोकन - बान, सहाए बिना सहनोई परयौ ॥ उततै वह गात छुवाइ चले, तब तो प्रन कौँ ढहनोई परयौ । भरि आह कराह 'सुनौ जू सुनौ,' नँदलाल सौ यौँ कहनाई पर्यो ॥३५॥ जोवन उमंग सौं चलायौ चख जो बन मैं, सो बनि अनंग को निषंग सालि सालि उठे। कहै रतनाकर सघन बरुनी की पाँति, भाँति भाँति साँति की सनाह चालि चालि उठै ॥ हौंस-भरे हुलसि निहारत निहारि उन्हैं , चूंघट कियौ सो घट घूमि घालि घालि उठे। बंक लखि लाटनि मैं लंक की अनोखी अति, ए वह लचक हिये मैं हालि हालि उठे ॥३६॥ उन्नत ललाट नैन लोलनि कपालनि पै, अधर अमोलनि पै ललकि लुभान्यौ जात । ग्रीवा कल कंध भुजा उरज उतंगनि पै, रोमराजी रंगनि पै लखि ललचान्यौ जात ॥