पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३४८

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" बूझति न रंच पंचसर के प्रपंच वाल, लाल की ललक लखिवे कौं लुरियाति है। इत उत दाव देखिये काँ हिरकीयै रहै, आनि खिरकी लाँ फिरकी लॉ फिरि जाति है ॥४२॥ मूना निहारि बिलोकि इतै उत, रोकि लियौ मग कुंजगली को। आँगुरी चूमि चितै चटकाइ, बलाइ ले भाइ विहाइ छली को । ठोडी ठगी उसकीली दिए कर-कंज किए अनुहार कली को। चूमि कपोल विकाइ विलोकत, आनन श्रीबृषभानु-लली कौ ॥४३॥ मंजुल मोर पखा छह छवि, सौँ जब ग्रीव कछू मटकावत । नूपुर की झनकारनि पै झुकि, ग्वारनि गोधन-गीति गवावत ॥ आनँद - चंद - मरीचिनि सौं, रतनाकर आनँद को उमगावत । देखि सखी वह मैन लजावत, साँवरी वेनु वजावत आवत ॥४४॥ ऐंडत औ इठलात फिरौ करि, फेर कछू मग बेर लगावत । चारिहूँ ओर चितै रतनाकर, बेनु बजावत सैन वुझावत ॥ मोहिनी यौँ मनमोहन सौं, इठलाइ कहै लखि नैन नवावत । बात कछू हमहूँ तौ सुनें इत कौं, नित कौन कौं देखन आवत ॥४५॥ मान ठानि बैट्यौ इत परम सुजान कान्ह, भौंहैं तानि बानक बनाइ गरवीली का । कहै रतनाकर बिसद उत बाँकी बन्यौ, बिपिन-बिहारी-बेष बानक लड़ीली कौ ॥ .