पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३४७

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चाँदनी बिलोकन कौँ चौहरे अटा पै चढ़ी, चंद के करेज भयौ कठिन कराकी है। कहै रतनाकर हँसौं हैं ब्रजचंद हेरि, फेरि मुख कीन्यौ बाल बीच अचरा का है ॥ संग की सहेली कह्यौ हेली ! मन टोहि कछू, जोहि कुम्हिलात रूप रुचिर हरा को है। अधर-सुधाधर कौं देखति कहा है। उतै, देखा यह सुधर सुधाधर धरा का है ॥४०॥ होरी खेलिबे काँ कढ़ी केसरि कमोरी घोरि, उमगति आनँद की तरल तरंग मैं । कहै रतनाकर महर का लडैता छैल, रोकी गैल आनि हुरिहारनि के संग मैं। मो तन निहारि धारि पिचकी-अधार अंक, मारी मुसुकाइ धाइ उरज उतंग मैं । सोई पिचकारी रंगी सारी लाल रंग माहि, साई रंगी अँखियाँ हमारी स्याम-रंग मैं ॥४१॥ देखि स्याम सुंदर कौँ देखत लगाए दीठि, पीठि फेरि प्रथम कछूक अनखाति है। कहै रतनाकर बहुरि मुरि चाहि बंक, संकित मृगी लौँ चकि छरकि छपाति है।