पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३५३

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नाक चढ़ावत पिनाक भौंह ढीली पर, चढ़त पिनाक भौंह नाक मुसकाइ दै। कहै रतनाकर त्यौँ ग्रीबहूँ नवाइ लिए, मुख त ट न नैन गौरव गवाइ दै॥ अनख बढ़ावत अनंग की तरंग बढ़े, धीरज-धरा तैं प्रन-पायहिँ उठाइ दै। रहति हिय ही हाँस हिय की हमारे हाय, पैयाँ परौं नैंक मान करिबी सिखाइ दै ॥५८॥ जानि इकंत भरी भुज कंत भयौ, तबही तहाँ प्राइवौ तेरौ । ताउन लागे रिसाने से है कछु, देखत भौंह चढाइबा तेरौ ॥ छाँड़ि दई 'सव जानती जान द्यौ', यौँ सुनि कै सतराइबा तेरौ । मारिवौ पी को न सालत है अब, सालत सौति छुड़ाइबौ तेरौ ॥५९॥ साई फूल मूल से भए है सुख-मूल अबै, ताप-प्रद चंदन अनंग-कदंही भयौ । कहै रतनाकर जो फनि-फुतकार हुतो, सब-सुखसार मलयानिल वही भयौ । छरकि हमारे बाम अंग की फरक ही सौं, बाम सौँ सुदच्छिन प्रभाव सबही भयो । काल्हि ही भयौ हो बीर विषम विषाकर का, आज सो सुधाकर सुधाकर सही भयौ ॥६०॥