पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४०५

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खाते खीस हात लिखे निखिल नयनि के, खोजें कहाँ तिनका त्रिलोक माहि पैह अब । देखि रंग-ढंग ये अनोखे वस दंग भए, तंग भए भूरि गंग हमहूँ नहहै अब ॥२९।। जाइ पाकसासन पुकार कमलासन सौं, अब मन सासन महावत मढ़े नहीं । तुम तो गनत रतनाकर तरंग वैठि, मेरी बिनै चित पै चढ़ावत चढ़े नहीं ॥ आवत चल्यो जो इत गंग कै पठाया नित, ऐसौ थित होत सो कढ़ावत कट्टै नहीं। थोक उनकी तो जाति वाढ़ति अरोक सदा, सीमा सुरलोक की बढ़ावत बढ़े नहीं ॥३०॥ इवनी रुचिर गज-गवनी महीपनि की, दीपनि को जिनकी जगाजग जग रहै । कहै रतनाकर अन्हाति जब तो मैं मात, चाहि चाहि कौतुक चकात सुनासीर है ।। ज्यों ही जल-केजि मैं कलोलत नवेलिनि के, गजमुकता हार हलकत नीर है। त्याँ ही दिब्य याननि पधारि वपु भव्य धारि, नंदन मैं भरति गयंदन की भीर है ॥३२॥