पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४०९

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धोइ देती खाता ही हमारौ जौ न सारौ आप, चित्रगुप्त कहा को कहा धाँ करि देत्यौ तौ । कहै रतनाकर न पाप नासती जौ इता, भानहू का भौन तम-तोम भरि देत्यौ तौ ॥ तारती अपार जग-जीव जौ न मात गंग, रचना प्रपंच कौँ बिरंचि धरि देत्यौ तौ । मिलती त्रिलोक कौ त्रिताप हरि जौ ना आप, सिंधु-आप बाड़व की ताप दरि देत्यौ तौ ॥४२॥ जोगी जती तापस बिलोकि सुरलोक माँहि, हिय सुख-साजन के धरकन लागें हैं। कहै रतनाकर न मान निज जानि कछू, गौरव गुमान सबै सरकन लागें हैं । गंग के पठाए लोल लंपट निहाएँ फेरि, उमगि उछाह-छटा छहरन लागें हैं। थरकन लाग सुर-तरु सुर-धेनु आदि, सुर-तरुनीनि अंग फरकन लागें हैं ॥४३॥ पापी तन-तापी मैं न भेद कछु राखति है, पार भवसागर के सबही उतारे देति । कहै रतनाकर बिरंचि रचना सौं बेगि, पंच-तत्त्व त्यागि सत्व सकल निकारे देति ॥