पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४१२

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पारद-प्रभाव रतनाकर भयौ सो यह, जामै परि बुड़न की बात ही बिलाई है। नेम ब्रत संजम की कठिन कमाई करि, अब तो पर न इहाँ देन उतराई है ॥४९॥ सगर-कुमारनि की उमगि उबारन के, अमर अगारनि को विचल बसावतो। मुक्ति-प्रद-पानिप-प्रभाव-प्रभा आगर साँ, सागर कौं कौन रतनाकर बनावतौ ॥ ब्याली गज-खाली औ कपाली भूतनाथ कही, माथ धरि काकां सिव संकर कहावतौ । होतो जौ न नातौ गंग-धार को अधार तो पै, जड़ जल कैसै पद जीवन को पावतो ॥५०॥ जारि जोरि पातक-विधान सब कोरि कोरि, भेंट को तिहारी फैट भूरि भरि धारे हम । कहै रतनाकर अपार वटपारे पर, पाछै परे ज्याँ ही तव मग पग पारे हम ॥ विकट पहाडिनि मैं खाडिनि मैं झाडिनि मैं, साधन अनेक कै कछुक जो उबारे हम । सेोऊ बचे पहुँचि किनारे ना तिहारे गंग, तात हाथ झारे आनि तुम सौं जुहारे हम ॥५१॥