पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४८३

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धारि कै हिमंत के सजीले स्वच्छ अंबर कौँ, आपने प्रभाव को अडंबर बढ़ाए लेति । कहै रतनाकर दिवाकर-उपासी जानि, पाला कंज-पुंजनि पै पारि मुरझाए लेति ॥ दिन के प्रताप औ प्रभा की प्रखराई पर, निज सियराई-सँवराई-छवि छाए लेति । तेज-हत-पति-मरजाद-सम ताको मान, चाव-चढ़ी कामिनी लॉ जामिनी दवाए लेति ॥३॥ अंतपुर पैठि भानु आतुर क न बेगि, चिर निसि-अंक मैं निसापति डरे रहैं। कहै रतनाकर हिमंत का प्रभाव ही सौं, संत-मनहूँ मैं भाव और ही भरे रहे । नर पसु पच्छी सुर असुर समाज आज, काम अरचा मैं निसि-बासर परे रहें। है कै कुसुमायुध के आयुध उवारू अब, सव धरिनी ही मैं धरोहर धरे रहैं ॥४॥ भानुहूँ की लागी प्रीति अगिनि दिगंगना सौं, सीत-भीति जागी इमि सकल समंत कौँ । कहै रतनाकर रहत न अकेले बने, मेले बनै रूसिहूँ तिया सौं दोपवंत काँ ।।