पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४८२

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(१३) हेमंताष्टक विकसन लागे मुचुकुंद लवली औ लोध, कछु परसौं तें सरसौं हूँ दलिनी भई । कहै रतनाकर मनोज-अोज पोषन कौं, बन उपबन मैं प्रफुल्ल फलिनी भई । और और कलिनि खिलावत समीर हेरि, माष मन मानि के मलिन नलिनी भई । हैं बँत मैं काम की अपूरब कला सौँ चकि, कोकिल भुलाने कूक मूक अलिनी भई ॥१॥ पौन पान पानी भए सीतल सुहाए स्वच्छ, असन-सवाद भयौ सबही मिठाई सौ । कहै रतनाकर विचित्र चित्र-सारी माहि, उठत सुगंध-धूम मौज मन-भाई सौ ।। बिबिध बिलासनि के हरष-हुलासनि साँ, सुखद बसंत होत सुकृत-कमाई सौ। बाम अभिराम सी सुहाई घाम देह लगै, लागत सनेह नए नेह की निकाई सौ ॥२॥