पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५८४

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पल रोकि राधिका को इक चित्र लिए कोऊ आई सकाति सँभारति चीरें। चितेरिनि त्यौर मैं सो रतनाकर औरही आतुरी-भीर ॥ ठगदी छकी सी रही बिलोकि चकी सी रही सब बीरें। दोय ते एक भए मन दोऊ के एक ते है गई व तसवीरें ॥४६॥ १९-२-३१ एक ही साँचौ स्वरूप अनूप है खाँचौ यह मन एक लकीरें। रतनाकर सेस को भेस असेस लसैं भ्रम की भरी भी। ता बिनु और जो देखि परै थिति ताकी सुनौ औ गुनौ धरि धीरें। लोचन द्वैतता दोष यह एक ते है गई तसबीरै ॥४७॥ १९-२-३१ सासु के त्यौँ रतनाकर नैकुं न त्रास गुनै न सुनै कछु सीख जो देति जिठानी । आन धरै न तो कान करै सखियानि की बानी ॥