पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५८३

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- करि कै बहानी मनमानी फाग भंटन को बीज अनुराग को सु रोमनि मैं बै गयौ। जानी पहिले तो हाय होली की ठठोली पर चोली की टटोली मैं मरोरि मन लै गयौ॥४३॥ कीजिये हाय उपाय कहा अपने सियराइवे कौ हमें दाहति । रूप-सुधा रतनाकर की चखावन काज निरंतर नाति॥ और रही रही कितहूँ की नहीं अँखियाँ दुखियाँ उतही कौ उमाहति । ऐसी भई दिखसाध असाध के देख्यौ अब पुनि दोखिबौ चाहति ॥४४॥ १८-२-३१ देखिबे कौँ अकुलानी रहैं नित पीर सौँ रंचक धीर न धारति । त्यौँ रतनाकर रैन-दिना कलपै पल नैकुं न पारति॥ ये अँखियाँ पँखियाँ बिनु हाय सहाय कौँ और न ब्याँत विचारति । घाइवे कौँ उत ध्याइ मनाइ के पाइनि पै जल-अंजलि ढारति ॥४५॥ १८-२-३१