पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५८६

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चोरमिही चिनि-हार-गिलानि मानि इतो मन मैं अवसेरौ । प्यारी दिवारी की रैनि अहो रतनाकर सौ इमि नैन न फेरौ ॥ चुंबन की बदि बाजी अबै तुम सारि लै आपने ही कर गेरौ । हार औं जीत हू को सुख साँ रहै रावरे ही मुख सौं निबटेरौ ॥५१॥ १२-३-३१ तू तो कहै अलकावली भीर सी मो मत ये अलि आहिँ जजीरें। तोहि तो कंज से नैन लगै पर मैन के बान लौँ मोहि बिदीरै ॥ है कछु नैननि ही को विवेक के एक सौं है गई बै तसबीरें । तोहि ती मूक है चित्र पै मोहि बतावत भाव विचित्र की भीरै ॥५२॥ २५-०३-३१ निकसत चारु चुभकी लै मुख मंडल पै केसनि को कलित कलाप मढ़ि आयौ है। मानौ निज बैरि के कढ़त रतनाकर तै ब्योम ते पसरि तम-तोम बढ़ि आयौ है ।। ७