पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५९३

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गमकत मंजु कहूँ प्रफुलित कंज-गंज गुंजरत जाप अलि-पुंज फमकत हैं। कहै रतनाकर सिवारनि के भारनि मैं करत झमेला कहूँ चेल्हा चमकत है ॥ लोल लहरी की मुखमा पै हेम-मंडित के अरुन प्रकास के विलास दमकत है। तट तटिनी के चख चंचल जहाँ ही जात चंचलता त्यागि कै तहाँ ही ठमकत है ॥७॥ १५०-१२-३१ सरद निसा की सरिता की सुखदाई छवि हेरत ही हेरत हिथे मैं सरसाति है। कहै रतलाकर अमंद चंद्रिका के परै सारी जरतारी की छटारी छहराति है ।। मीन दृग चंद्र-बिंब आनन सिबार केस कल कल नूपुर की सु धुनि सुहाति है। सज्जित सिँगार अभिसारिका रसीली मनो जीवन-अधार के अगार चली जाति है ॥७२॥ १५-१२-३१ लाए घात वाघ कौँ बिलोकि हूँ टरै ना मृग आऐं पास मृग हूँ पै बाघ ना झरापै है। कहै रतनाकर लगाए थन आनन मैं" बकरा न चाँपै औ न गाय पय आपै है ॥