पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/९६

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अपने अपने काज करत बिन रोके टोके । सहित अमंद अनंद चारहूँ बरन बिलोके ॥ घर घर होत बेद-धुनि जिहि सुनि पातक भाजै । हरि-हर-चरचा-सुरस-रसिक सब लोग विराजै ॥४॥ जाँच्यौ सोधि समस्त न कहुँ दुखिया कोउ दीस्यौ । जासौ चरचा चली नृपति-गुन गाइ असीस्यौ ॥ यह करतूति बिलोकि मनहिं मन लगे सराहन । भये तुष्ट सोच्यौ बरबस पन परयौ निबाहन ॥५॥ विविध गुनावन करत राज-पौरी पर आए । लखि रचना निज सृष्टि-सक्ति को गर्व भुलाए । रजत-हेम-मुकता-मय मंजुल भवन बिराजत । बड़े बडे मनि-अच्छर खचित द्वार इम भ्राजत ॥६॥ "टरहिँ चंद सूरज औ टरहि मेरु गिरि सागर । टरहि न पै हरिचंद भूप को सत्य उजागर"॥ पढ़त प्रतिज्ञा साभिमान ईर्षा पुनि आई। "भला देखि हैं तौ" मन मैं कहि भौंह चढ़ाई ॥७॥ तब लौँ दौरि पौरिया भूपहि यह सुधि दीन्ही । "महाराज इक ऋषिवर कृपा आज इत कीन्ही ॥" सुनि नृप आपहिँ उमगि द्वार अति आतुर पाए। करि प्रनाम पग परसि सभा मैं सादर ल्याए ॥८॥