पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/९७

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श्रद्धा सील बैठारयौ सनमान सहित बहु बिनय उचारी । अानंद सौं तन पुलकि उठ्यौ नैननि भरि बारी ॥ सहज अकृत्रिम भाव भूप के मुनि मन भाए । सुभाव नम्रता हेरि हिराए ॥९॥ पै बानी करि उदासीन निज परिचय दीन्ह्यौ । "सुनहु भूप हम कौन जासु आदर तुम कीन्ह्यौ ॥ नाकै तप ब्रह्मांड तप्यौ हरि-आसन डोल्यौ। जो तप-बल छत्री सौं है ब्रह्मर्षि कलोल्यौ ॥१०॥ जिन बसिष्ठ-सौ-सुतनि क्रोध करि सहज नसायौ । कठिन ब्रह्म-हत्यहुँ कौँ निज तप-तेज जरायो । निज तप-बल सदेह तब जनकहिँ स्वर्ग पठायौ । नवल सृष्टि करि ब्रह्मादिक को गर्व गिरायौ ॥११॥ कौसिक बिस्वामित्र सोइ हम तव गृह आए। सकल मही के दान लेन को चाव चढ़ाए । जान्यौ हमैं तथा आवन को कारन जान्यौ । कहाँ बेगि अब जो विचार उर-अंतर आन्या" ॥१२॥ कह्यौ भूप “कत जानि बूझ बूझत मुनि ज्ञानी । या मैं सोच-विचार कहा जो तुम यह ठानी ।। तुम सौँ पाइ सुपात्र दान दैवे मैं चूकै । तो यह चूक सदैव आनि उर-अंतर हूकै ॥ १३ ॥