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रवीन्द्र-कविता-कानन
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सोचती है मेरी माँ की तरह उनके माँ नहीं है?)

बच्चे के मुख से बच्चे की तुलना और बच्चे को आलंकारिक भाषा में, रवीन्द्रनाथ एक बहुत बड़ा तत्व कहला देते हैं। न कहीं अस्वाभाविता है, न असंगति, इतने पर भी वे जो कुछ कहना चाहते हैं, कहा कर पूरा उतार देते हैं। जहाँ बच्चा फूलों के सम्बन्ध में अपनी माँ से कहता है, वे पाताल में पढ़ने के लिए जाते हैं, वहाँ उनका उद्देश्य बीज की शिक्षा के लिए या प्रगति के लिए भेजना हैं—वह संसरणशील हो कर निकलता है। जेठ-वैशाख फूल रूपी छात्रों की दुपहर, मेघों को गर्जना, उनके छुट्टी के समय में की गई घंटे की आवाज है; यह सब अलंकार मात्र है। हाँ, इसमें दलों के विकसित होने की एक वैज्ञानिक व्वाख्या भी है, परन्तु इतनी छानबीन की आवश्यकता नहीं । परन्तु जहाँ बच्चा आकाश को उनका घर बतलाता है, वहाँ कल्पना कमाल कर देती है। आकाश तत्व को ही शास्त्रों में सब बीजों का आश्रयस्थल कहा गया है। जहाँ बच्चा अपनी माँ से कहता है, मेरे जिस तरह माँ है, उस तरह उनके भी मां हैं, वही एक दूसरे सूक्ष्म सोपान पर पहुँच कर शास्त्र के सर्वोच्च सत्य को महाकवि जिस खूबी से सिद्ध कर देते हैं, उसको प्रशंसा के लिये एक भी उचित शब्द मुंह से नहीं निकलता। आकाश को घर बतला कर यदि कवि चुप रह गये होते तो उनसे एक बहुत बड़ी गलती हो जाती, क्योंकि घर का मालिक भी तो एक होता है। उसकी फिर कोई पहचान नहीं हो सकती थी। परन्तु बच्चे के मुख से उसका भी उल्लेख आपने करा दिया और मालकिन के रूप में फूलों की माँ बतला कर। वह है ब्रह्म, आकाश से भी सूक्ष्म—आकाश की सूक्ष्मता में अवस्थान करने वाला—सबका जनक—सबकी जननी । बच्चे के मुख से इतनी स्वाभाविक भाषा और स्वाभाविक वर्णन के द्वारा इतना ऊँचा विज्ञान कहला कर बच्चे को पूरी तरह सिद्ध कर देना साधारण मनुष्य का काम नहीं। महाकवि रवीन्द्रनाथ ने जिस सरलता से इतना गहन तत्व कह डाला है, दूसरे के लिये इसका प्रयास उतना ही दुस्साध्य है।

बच्चों की भाषा में 'नदी' पर आपने कविता लिखी है। कविता बहुत बड़ी है। कुछ अंश हम उद्धत करते हैं। देखिये, सीधी भाषा में भी कितने ऊँचे भाव आ सकते हैं—

"ओरेतोरा कि जानिस केउ
जलेकेनो उठे एतो ढेउ!