पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/१२५

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रवीन्द्र-कविता-कानन १२१ तव आनमित मुख खानि सुखे थुयेछिनु बुके आनि, तुमी सकल सोहाग सयेछिले, सखि हासी-मुकुलित मुख, काली मधुयामिनीते ज्योत्स्नानिशीथे नवीन मिलन सुख । (५) २-आजि निर्मलवाय शान्त ऊषाय निर्जल नदी तीरे स्नान अवसाने सुभ्रवसना चलिया छो धीरे-धीरे ।(६) तुमी बाम करे लोये साजि कतो तुलेछो पुष्प राजि दूरे देवालय' तले ऊषार रागिनी बांसिते उठेछे बाजि एई निर्मल वाय शान्त ऊषाय जाह्वानी तीरे आजि । (७) देवि तब सिंथी मूले लेखा नव अरुण सिंदुर-रेखा वाम बाहु बेड़ी शंख वलय तरुण इन्दुलेखा ( ८ ) एकि मङ्गलमय भूरति विकाशि प्रभाते दितेछ देखा । (६) राते प्रेयसीर रूप धरि तुमी एसेछो प्राणश्वरि; प्राते कखन देवीर वेशे तुमी सुमुख उदिले हेसे; आमी संभ्रम भरे रयेछि दांडाये अवनत शिरे आजि निर्मल वाय शान्त ऊषाय निर्जन नदी तीरे । (१०) ८