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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

अर्थ :—(१) ऐ प्रिये! कल बसन्त की चाँदनी में, अर्थ रात के समय, उपवन के लता-कुंज के नीचे छलकती हुई फेनिल यौवन की सुरा सुख पूर्वक मैंने तुम्हारे होठों पर लगाई थी। (२) तुमने मेरी दृष्टि से अपनी दृष्टि मिला कर, धीरे-धीरे वह सुरापात्र ले लिया था, फिर हँस कर, मधुर आवेश से भर कर, कल वसन्त की चाँदनी अर्धरात में, चुम्बन भरे अपने सरस बिम्बाधरों से उसका पान कर गई थीं। (२) मैंने तुम्हारा घूँघट खोल डाला था और तुम्हारे कमल-कोमल हाथ को हृदय पर खींच कर रख लिया था (३)। उस समय तुम्हें भावावेश हो गया था, तुम्हारी दोनों आँखों की अधखुली हालत थी और मुख में एक शब्द आ रहा था (४)। बन्धनों को शिथिल करके मैंने तुम्हारी केशराशि खोल दी थी, तुम्हारे झुके हुए मुख को सुख पूर्वक हृदय से लगा लिया था, सखी कल बसन्त की चाँदनी अर्ध रात में नवीन मिलन सुख के मेरे द्वारा किये गये इन सब सुहागों को हँस-हँस कर तुमने सहन किया था—तुम्हारी हँसी की कली ज्यों की त्यों मुकुलित ही बनी रही-न मसली—न मसल जाने के दर्द में आह भरने के इरादे से उसने मुँह खोला (५)।

आज इस बहती हुई साफ हवा में, शान्त ऊषा के समय, निर्जन नदी के तट पर से स्नान समाप्त करके धीरे-धीरे चली आ रही हो (६)। बाएँ हाथ में साजी लेकर तुमने तो ये बहुत से फूल तोड़े, इस समय वह सुनो, दूर के देव-मंदिर में, वंशी में, ऊषा की रागिनी बज रही है और इस निर्मल वायु, शान्त ऊषा और निर्जन नदी में भी उसकी तान समाई हुई है (७)। हे देवि! तुम्हारी मांग में बाल सूर्य सिंदूर की कैसी लाल रेखा खिची हुई है। तुम्हारी बाई बांह को घेरे हुए शंख-बलय तरुण इन्दु-सा शोभायमान हो रहा है (८)। यह क्या?—यह कैसी मङ्गल-मूर्ति का विकास में इस प्रभात के समय देख रहा हूँ (९)! ऐ प्राणेश्वरी! रात के समय तो प्रेयसी की मूर्ति से तुम मेरे पास आई थीं, सुबह को यह कब देवी की मूर्ति में हंस कर तुम्हारा उदय मेरे सम्मुख हुआ? आज इस निर्मल वायु, शान्त ऊषा और निर्जन नदी-तट पर के समय में तुम्हारे सम्मान के भावों में सिर झुकाये हुए दूर खड़ा हुआ हूँ (१०)। इस कविता में नारी-सौन्दर्य के दो चित्र दिखलाये गये हैं। इन दोनों का समय कविता के शीर्षक से सूचित हो जाता है। एक चित्र रात का है और दूसरा प्रभात का, इसीलिये इस कविता का नाम महाकवि ने 'रात्रे ओ प्रभाते' रखा है। दोनों चित्रों की विशेषता महाकवि की अमर लेखनी को चित्रण कुशलता उस