पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/१२९

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रवीन्द्र-कविता-कानन १२५ कुन्दशुभ्र नग्नकान्ति सुरेन्द्र वन्दिता, तुमी अनिन्दिता । (६) ३-कोनो काले छिले नाकि मृकुलिका बालिका बयसी 'अनन्त यौवन ऊर्वशि ! (७) आंधार पाथार तले कार घरे बसिया एकेला माणिक मुकुना लये करेछिले शैशवेर खेला, मणि दीप दीप्त कक्षे लमुरे कल्लोल संगीते अकलङ्क हास्यमुखे प्रवालपालके घुमाइते कार अङ्कटीते ? (८) जखनि जागिले विश्वे, यौवने गठिता पूर्ण प्रस्फुटिता । (६) ४-~-युग युगान्तर होते तुमी सुधू विश्वेर प्रेयसी हे अपूर्वशोभना ऊर्वशि ! (१०) मुनिगण ध्यान भांगि देय पदे तपस्यार फूल, तोमारि कटाक्ष घाते त्रिभुवन यौवन चंचल, तोमार मदिर गन्ध अन्ध वायु बहे चारि भिते, मधुमत्त भृङ्गसम मुग्ध कवि फिरे लुब्ध चिते, उद्दाम संगीते । (११) नूपुर गुजरि जाव आकुल-अंचला विद्युत्-चंचला । (१२) ५-सुर सभा तले जवे नृत्य करो पुलके उल्लसि हे विलोल-हिल्लोल । ऊर्वशि ! छन्दे छन्द नाचि उठे सिन्धु माझे तरंगेर दल, शय्या शीर्षे सिहरिया कापि उठे धरार अंचल, तव स्तनहार होते नभस्तले खसि पड़े तारा; अकस्मात् पुरुषेर वक्षो माणे चित्त आत्महारा, नाचे रक्त धारा । (१३) दिगले मेखला तव टूटे आचम्बिते अयि असम्वृते ! (१४)