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रवीन्द्र कविता-कानन
 

६—स्वर्गेर उदयाचले मूर्तिमती तुमी हे उषसी,
हे भुवन मोहिनी ऊर्वशि! (१५)
जगतेर अश्रु धारे धौत तव तनुर तनिमा,
त्रिलोकेर हृदिरक्ते आंका तव चरण-शोणिमा,
मुक्तवेणी विवसन, विकसित विश्व-वासनार,
अरविन्द माझखाने पादपद्म रेखेछो तोमार
अति लघुभार (१६)
अखिल मानस स्वर्गे अनन्त रंगिणी,
हे स्वप्न संगिनि (१७)
७—ओइ सुनो दिशे दिशे तोमा लागा काँदिछे क्रन्दसी—
हे निष्ठुरा वधिरा ऊर्वशि (१८)
आदियुग पुरातन ए जगते फिरिबे कि आर,—
अतल अकूल होते सिक्त केशे उटिबे आबार?
प्रथमसे तनुखानि देखा दिबे थम प्रभाते;
सर्वाङ्ग कांदिबे तव निखिलेर नयन-आघाते
वारिविन्हु पाते (१९)
अकस्मात् महाम्बुधि अपूर्व संगीते
रवे तरंगित (२०)
८-फिरिवे ना फिरिबे ना—अस्त गेछे से गौरव राशि
अस्ताचलवासिनी ऊर्वशि! (२१)
ताई आजि धरातले वसन्तेर आनन्द उच्छवासे
कार चिरबिरहेर दीर्घश्वास निये बहे असे,
पूर्णिमा-निशीथे जवे दश दिके परिपूर्ण हासी
दूर स्मृति कोथा होते बाजाय व्याकुल करा वांसी
झरे अश्रु राशि। (२२)
तबू आशा जेगे थाके प्राणेर क्रन्दने
अयि अवन्धने! (२३)

अर्थ—१ नन्दनवनवासिनी ओ रूपवती ऊर्वशी! तुम न माता हो न कन्या हो और न वधू हो (१)! थकी दोहपर सोने का आंचल खींच कर सन्ध्या जब होओं के चरागाह में उतरती है, तब ऐ ऊर्वशी! तुम घर के कोने में शाम का