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रवीन्द्र-कविता-कानन
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दीपक नहीं जलाती—न संकोचवश जकड़े हुए पैरों से, कांपते हुए कलेजे से, नीची निगाह करके, मन्द-मन्द हँसती हुई; अर्घरात के सन्नाटे में प्रिय की सेज की ओर लज्जित भाव से जाती हो (२)। तुम्हारा तो बूंघट सदा उसी तरह खुला रहता है जैसे ऊषा का उदय, और तुम सदा ही अकुण्ठित रहती हो(३)।

२—बिना वृन्त घट के फूल की तरह अपने ही में अपने को विकसित करके, ऐ ऊर्वशी! तुम कब खिली (४)? आदिम वसन्त के प्रभात काल में मथे हुए सागर से तुम निकली थीं, अपने दाहिने हाथ में सुधापात्र और बाएँ में विष का ले कर; तरंगित महासिन्धु मन्त्रमुग्ध भुजङ्क की तरह अपने लाखों उच्छवासित फनों को झुका कर तुम्हारे श्रीचरणों के एक किनारे पर पड़ा हुआ था (५) कुन्द के समान शुभ्र तुम्हारी नग्न कान्ति की चाह सुरपति इन्द्र को भी रहती है, तुम्हारी भला कौन निन्दा कर सकता है (६)?

३—ऐ उर्वशी! तुम्हारे इस यौवन का क्या कभी अन्त भी होता है? — न, अच्छा माना कि तुम्हारा यौवन अनन्त है, परन्तु यह तो बताओ, कली की तरह कभी तुम बालिका भी थीं या नहीं ? (७) अतल के अन्धकार में तुम किस के यहाँ अकेली बैठी हुई मरिणयों और मुक्ताओं को ले कर अपने शैशव का खेल करती थीं?—मणियों के दीपों से प्रदीप्त भवन में समुद्र के कल्लोल के गीत सुन कर निष्कलंक मुख से हँसती हुई प्रवालों के पलंग पर तुम किसके अंक में सोती थीं (८)? इस विश्व में जब तुम्हारी आँख खुलीं, तब तुम्हारा यौवन गठित हो चुका था—तुम बिल्कुल खिल गई थीं (९)।

४—अपूर्व शोभामयी, ऐ ऊर्वशी! युग-युगान्तर से तुम इस विश्व की प्रेयसी हो, बस (१०)। ऋषी और महर्षि ध्यान छोड़ कर अपनी तपस्या का फल तुम्हारे श्रीचरणों को अर्पित कर देते हैं, तुम्हारे कटाक्ष की चोट खा कर यौवन के प्रभाव से तीनों लोक चंचल हो उठते हैं। तुम्हारी शराब-जैसी नशीली सुगन्ध को अन्ध वायु चारों ओर ढोये लिये जा रही है और मधु पी कर मस्त हुए भौरों की तरह कवि तुम पर मुग्ध और लुब्धचित्त होकर उद्दाम संगीत गाते हुए घूमते हैं (११)। तुम अपने नूपुर बजाती हुई, अंचल को विकल करके, बिजली की तरह चंचल गति से कहीं चली जाती हो (१२)।

५—देह में लोल हिलोरों का नृत्य दिखाने वाली ऐ ऊर्वशी! जब तुम देवताओं की सभा में पुलकित और हुलसित हो कर नृत्य करती हो, तब तुम्हारे