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रवीन्द्र-कविता-कानन
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प्रकाश है वैसा यूरोप के साहित्य भर में मिलना मुश्किल है।' अजित बाबू की राय, सम्भव है कि सच हो। परन्तु दु:ख है, उन्होने कविता के गुणों का विश्लेषण करके उसकी श्रेष्ठता सिद्ध करने की चेष्टा नहीं की, न एक ही ढंग की यूरोपीय कविताओं का उद्धरण करके तुलनात्मक विचार करने का कष्ट उठाया। कुछ भी हो ऊर्वशी के चित्र-चित्रण मे महाकवि की एक अद्भुत शक्ति लक्षित होती है, इसमें सन्देह नहीं। देव-सौदर्य में देवभावों का विकास कर दिखाना बहुत सीधा है। ऐसा तो प्राय: सभी कवि कर सकते हैं। हिन्दी में शुद्ध शृंगार और स्वकीया के वर्णन में सफे-के-मफे रंग डाले गये हैं, यही बात संस्कृत में भी। परन्तु जहाँ परकीया नायिकाओ या वारांगणाओं का वर्णन आया है, वहाँ तो कवि नायिकाओं से बढ़ कर अश्लोलता करते हुए पाये जाते हैं—'दे मागदे दे मागादे करै रात में तगादे है', ये सब उनके भावों के जीते-जागते चित्र हैं। यह हम मानते है कि मनुष्य स्वभाव का यह भी एक चित्र है, अश्लोल भले ही हो, पर झूठ नहीं; अतएव साहित्य में इसे भी स्थान मिलना चाहिये। यह बात और है। हम पहले ही लिख चुके हैं कि अश्लील में शील और कुरूप में सौंदर्य, विकार में निर्विकार की व्यंजना और मनोहर होती है और वह भी सत्य है, अतएव वह अधिक हृदय ग्राह्य है। कविकुल चूडामणि कालीदास ने, कविराज राजि मुकुटालंकार हीरःकरण श्रीमान श्रीहर्ष ने और इस तरह अनेक संस्कृत के महारथि कवियों ने कुल-कामनियों के अन्तःपुर की लीलाएँ लिखते हुए अश्लीलता को हृदय तक पहुँचा दिया है,—'यदि पीनस्तनी पुनरहं पश्यामि, मन्मथशरानलपीड़ितानि गात्राणि सम्प्रति करोमि सुशोतलानि'—बेचारे अपने हृदय की बात 'बेलाग' कह डालते हैं, फिर उनके वंशज हिन्दी वाले—अपनी पैत्रिक सम्पत्ति का अधिकार क्यों छोड़ देते ?—'स्वधर्मे मरणं श्रेयः।' अस्तु। 'ऊर्वशी' के आरम्भ में वैश्या-सौन्दर्य पर बड़ी सावधानी से रवीन्द्रनाथ की तूलिका सचालित होती है। उस नन्दन-वासिनी में मातृ-भाव पाते है, न कन्या भाव, न वधूभाव। वह कुलवधू की तरह ल जाती हुई अर्धरात के सन्नाटे में अपने प्रियतम को सेज के पास नहीं जाती, वह घूघट से कभी मुंह नहीं मदती; ऊषा के उदय की तरह उसका मुंह खुला रहता है। उसमें कुण्ठा नही है—किसी का दबाव नहीं है। महाकवि को उपमा "ऊषा का उदय" देखने लायक है। उपमा चोट कर जाती है। इतनी जंची तुली हुई है कि जान पड़ता है इससे बढ़ कर और कोई उपमा यहाँ के लिये उपयोग्य नही। ऊषा