पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/१४५

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रवीन्द्र-कविता-कानन १४१ - जैसे युवती आकर कहे--"जब तक हृदय नहीं खिला था, तब तक तो वह तुम्हारा था, अब खुल कर हमारा है, चलो छोड़ो राह, जाने दो हमें अपने आसन पर।" पाठक ध्यान दें--किस खूबी से रवीन्द्रनाथ हृदय का दान करते हैं और वह भी एक उस युवती को जिसके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानते । हृदय खुल जाने पर सारी शोभा और सम्पूर्ण माधुरी का जग जाना बहुत ही स्वाभाविक है, इस पर वे कहते हैं- "जेगे उठे सब शोभा सब माधुरि पलके-पलके हिया पुलके पुरी।" "कोथा होते समीरण आने नव जागरण पराणेर आवरण मोचन करे।" यहां उन्होंने सिर्फ हवा को करामात दिखलाई है कि वह अंगों का स्पर्श करके किस तरह उनमें नया जागरण-नवीन स्फूर्ति पैदा करती--प्राणों पर पड़े हुए जड़ आवरण को हटा देती है; परन्तु आगे चल कर अपनी वासना के साथ बाहरी प्रकृति की सहानुभूति दिखलाते हुए उन्होंने चित्रण-कुशलता की हद कर दी है- "आमार वासना आजि त्रिभुवने उठे वाजि, कांपे नदी वन राजि वेदना-भरे।" यहाँ महाकवि पत्तियों और लहरों को कांपते हुए देख कर जो यह कहते हैं कि आज मेरी ही वासना का डंका तीनों लोक में बज रहा है और इसी से वन और नदियों में वेदना का संचार दीख पड़ता है-वे कांप रहे हैं, इससे कविता पूर्ण रूप से खुल जाती है, कवि-हृदय को बिम्बित कर दिखाने के लिये एक बहुत ही साफ आइने का काम करती है। (संगीत-३) "आजि शरत-तपने, प्रभात-स्वपने कि जानि पराण कि जे चाय ॥१॥ ओई शेफालीर शाखे कि बलिया डाके, विहग-विहगी कि जे गाय ॥२॥ SR