पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/१५२

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१४८ रवीन्द्र-कविता-कानन सोनार आलो केमने हे रक्ते नाचे सकल देहे ।। ३ ।। कारे पाठाओ क्षणे क्षणे आमार खोला बातायने; सकल हृदय लये जे हरे । सकल हृदय लये जे हरे। पागल करे एमन कोरे ॥ ४॥ अर्थ :--'मुझे अगर तुम कार्यों के भागों से बाँधना चाहते हो, तो इस तरह मुझे पागल क्यों कर रहे हो ? ॥१॥ मैं भला क्या जानूं कि क्यों बातास वह एक किस आकाश की गुप्त वाणी ले आती है, फिर मेरे इन प्राणों को पूर्ण कर देती है ॥२॥ न जाने क्यों, किस तरह स्वर्ण-रश्मियां खून के साथ मेरे तमाम देह में नाचती रहती है ॥३॥ तुम किसे बार-बार मेरे खुले हुए झरोखे के पास भेजते हो ? वह मेरे सम्पूर्ण हृदय को हर लेता और इस तरह मुझे पागल कर देता है ।।४॥' (संगोत-८) "तोमारि रागिणी जीवन-कुञ्ज बाजे जेन शदा बाजे गो॥१॥ तोमारि आसन हृदय-पद्म राजे जेनो सदा राजे गो।॥ २॥ तव नन्दन-गन्ध-मोदित फिरि सुन्दर भुवने, तव पद-रेणु माखि लये तनु साजे जेन सदा साजे गो॥३॥ सब विद्वेष दूरे जाय जेन तव मङ्गल-मन्त्रे विकाशे माधुरी हृदय बाहिरे तब संगीत-छंदे ! ॥ ४ ॥ तव निर्मल निरव हास्य हेरी अम्बर व्यापिया,