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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

विशाल अपनी पहली क्षुद्र सीमा को तोड़ कर किस तरह विश्व-ब्रह्माण्ड की व्याप्ति से मिल कर एक हो जाता है, इसका इन इतनी ही पंक्तियों में यथेष्ट उदाहरण है। उसका उन्नत ललाट मेघों को स्पर्श कर लेता—उनके भी ऊँचा यदि कोई स्थान है तो वहाँ भी उसकी गति कोई बाधा नहीं पहुँचाती। इधर धूल की घूलि हो कर वह छोटे से भी छोटा बन जाता है। महान् भी है और क्षुद्र भी है। यदि विशालता की पराकाष्ठा तक पहुँचाने के लिये कवि ने क्षुद्रता को छोड़ दिया होता तो उसके यथार्थ हृदयोद्गार को समालोचक व्यर्थ आत्म-प्रशंसा और अहंकार कह कर कलंकित भी कर सकते थे, क्योंकि क्षुद्र विशालता एक अंग ही तो है। रेणु से अलग कर देने पर विश्व-ब्रह्माण्ड का अस्तित्व स्वीकार करना हास्यास्पद नहीं तो और क्या होगा? अस्तु कवि की व्याप्ति विराट में भी है और स्वराट में भी। यह प्रतिभादेवी के कृपा-कटाक्ष का ही फल है कि पहले जिस हृदय में अन्धकार का साम्राज्य था आज वह विश्व के महान आकाश और क्षुद्र करण तक में व्याप्त हो कर उन्हें प्रभा-पुलकित देख रहा है। आज उच्च और नीच, विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों में उसका अपना ही दर्पण लगा हुआ है जिनमें वह अपने ही स्वरूप के दर्शन कर रहा है। न वह महान को देख कर डरता है और न क्षुद्र को देख कर उससे घृणा करता है। वह महान् में भी है और क्षुद्र में भी।