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रवीन्द्र-कविता-कानन
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में, स्वार्थ की नाव खेता हुआ गुप्त पर्वत की ओर चला जा रहा है।)

पश्चिम के जिन रक्ताभ मेघों का उल्लेख किया जा चुका है, उनके सम्बन्ध में आप कहते हैं—

"एई पश्चिमेर कोने रक्त-राग-रेखा
बहे कभू सौम्य-रश्मि अरुण लेखा
तब नव प्रभातेर। ए सुधू दारुण
सन्ध्यार प्रलय-दीप्ति! चितार आगुन
पश्चिम-समुद्र-तटे करिछे उद्गार
विष्फुलिंग—स्वार्थ दीप्त लुब्ध सभ्यतार
मशाल हइते लये शेष अग्नि-कण।
गई श्मशानेर माझे शक्तिर साधना
तव आराधना नहे, हे विश्व-पालक!
तोमार निखिल-प्लावी आनन्द आलोक
हय तो लुकाये आछे पूर्व-सिन्धु तोरे
बहु धैर्ये नम्र स्तब्ध दुःखेर तिमिरे
सर्वरिक्त आश्रुसिक्त दैन्येर दीक्षाय
दीर्घकाल-ब्राह्ममुहूर्तेर प्रतीक्षाय!"

(पश्चिम के कोनों में लाल-लाल यह जो रेखा खिची हुई है, इससे तुम्हारे नव-प्रभात के सौरम्यरश्मि सूर्य की सूचना नहीं होती। यह तो भयंकर सन्ध्या की प्रलय-दीप्ति है। देखो न, समुद्र के पश्चिम तट में चिता की आग से चिनगारियां निकल रही हैं और इस चिता में आग कैसे लगी? स्वार्थ से जलती हुई लोभी सभ्यता की मशाल को अन्तिम चिनगारी इस पर पड़ी थी। इस स्मशान में शक्ति की जो आराधना हो रही है वह तुम्हारी आराधना नहीं है। हे विश्वपालक! सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को बहा देने वाला तुम्हारे आनन्द का मधुर प्रकाश कहीं समुद्र के पूर्वी तट में छिपा होगा—दुःख के साथ अन्धकार में बड़े धैर्य के साथ नम्र रह कर दीर्घ काल से दीनता की दीक्षा में आँसू बहाता हुआ सर्वस्व गँवा कर वह 'बाह्म मुहूर्त' की प्रतीक्षा करता होगा।)

यहाँ इन पंक्तियों में महाकवि के निर्मल हृदय-पट पर स्वदेश-प्रेम का वही मनोहर चित्र खिचा हुआ देख पड़ता है, जिसके चारुता-सम्पादन में पहले के ऋषियों और महाऋषियों ने तपस्या करते हुए अपना सम्पूर्ण जीवन पार कर