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रवीन्द्र-कविता-कानन
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(ऐ मेरे स्वदेश! जो मनुष्य तुम्हें दूर रख कर नित्य ही तुमसे घृणा किया करता है, हम सम्मान के लिए उसी के वेश में उसके पास चक्कर लगाया करते हैं! विदेशी तुम्हें (तेरी महत्ता को) नहीं जानते, इसलिये उनमें निरादर का भाव है और वे तुम्हारा अपमान किया करते हैं, और हम तुम्हारी गोद के बच्चे वे उनके पीछे लगे हुए इस कार्य की सहायता किया करते हैं! माँ! तुम्हारी दीनता ही मेरे वस्त्र और आभूषण हैं, इस बात को मैं क्यों भूलू-माँ! दूसरे के धन के लिये अगर गर्द हो तो उस गर्व पर धिक्कार है। हाथ जोड़ कर भीख की झोली भरते हैं। माँ! अपने पवित्र हाथों से तुम जो रोटियाँ और भाजी—थाली पर रख देती हो, ईश्वर करे, उसी भोजन में हमारी रुचि हो, और अपने हाथों से तुम जो माटे कपड़े बुन देती हो, उन्हीं से हमारी लज्जानिवृत्ति हो—हमारी देह ढक जाय। अपने स्नेह का दान करने के लिये यदि तुम अपना अंचल बिछा दो, तो हमारे लिये वही सिंहासन है, माँ! तुम्हें जो तुच्छ समझता है वह हमें कौन-सा सम्मान दे देगा?)